जैसे घी के साथ मिट्टी मिली हुई है और उसको हमने गर्म कर दिया है | मिट्टी से मिला होने पर भी घी तो घी ही है, मिट्टी अलग द्रव्य है और घी अलग | गर्म होते हुए भी वह घी अपने स्वभाव में अर्थात चिकनेपने में ही विद्यमान है | गर्मपने के अभाव में भी चिकनेपने की अर्थात घी की उपलब्धि होती है, परन्तु चिकनेपने के अभाव में घी की उपलब्धि नहीं होती, अतः चिकनापना ही घी का ( स्वभाव ) सर्वस्व है | घी में गर्मी स्वयं नहीं आई अपितु अग्निजन्य है |
यहाँ दृष्टांत में मिट्टी के स्थान पर शरीर, चिकनेपने के स्थान पर चैतन्य, गर्मी के स्थान पर भावकर्म और अग्नि के स्थान पर द्रव्यकर्म हैं | मिट्टी और घी के मिश्रण के समान शरीर व् चैतन्य मिलकर एक से भास् रहे हैं, परन्तु हैं वे पृथक-पृथक द्रव्य, और गर्म घी के समान चैतन्य भी राग-द्वेष आदि भाव कर्मों से तप्तायमान हो रहा है, परन्तु ये सारे विकारी भाव हैं चेतना के अपने नहीं, द्रव्यकर्म-जन्य हैं, द्रव्यकर्म के उदय से आत्मा में हुए हैं अतः पर ही हैं |
चीज़ें वहाँ दोनों ही हैं - ज्ञान भी और कर्म भी और देखने वाला यह स्वयं है | इसे स्वयं ही चुनाव करना है कि मैं अपने आपको ज्ञान-रूप देखूं या कर्म व् कर्मफल-रूप | अपने को पर रूप देखना तो संसार है| यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि { देखना } पढ़ना नहीं, सुनना नहीं, कहना नहीं - मात्र देखना | ज़ोर देखने पर है, और अपने को अपने-रुप देखना सो मोक्ष है | अपने को अपने रूप देखना ही मोक्षरूप है, मोक्ष का मार्ग है, सम्यग्दर्शन है, स्वानुभूति है | "पर से हटना " अपने में आना है, "अपने में आना" पर से हटना है ज़ोर अपने में आने पर है | परमार्थ अपने में लगना है -अपने में लगना वह धर्म है पर से हटना तो मात्र व्यवहार है | मैं चेतन ज्ञान-दर्शन मई हूँ |
स्वयं विचार कीजिये।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें